बिहार में धरना-प्रदर्शन करने वालों को सरकारी नौकरी न देने और उत्तराखंड में सोशल मीडिया प्रोफाइल खंगालने के फैसलों पर उठ रहे सवाल. (प्रतीकात्मक तस्वीर)
आंदोलन, धरना, प्रदर्शन मौलिक और लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन हाल के दिनों में बिहार और उत्तराखंड में सरकार के दो फैसलों से इस पर सवाल उठ रहे हैं. बिहार में धरना-प्रदर्शन, आंदोलन करने वालों को सरकारी नौकरी नहीं दिए जाने और उत्तराखंड में व्यक्ति के सोशल मीडिया प्रोफाइल खंगालने के आदेश पर सवाल.
- News18Hindi
- Last Updated:
February 5, 2021, 10:47 AM IST
अपनी मांगों को लेकर या सरकार अथवा किसी भी सिस्टम के विरोध में आंदोलन, धरना, प्रदर्शन यह हर भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है और यह अधिकार उसे संविधान से मिला है, लेकिन मौजूदा दौर में डरा-धमकाकर, अड़ंगे लगाकर, तरह-तरह के फरमान जारी कर इस महत्वपूर्ण अधिकार को छीनने की कोशिश या कहें कि साजिश की जा रही है. ताजा उदाहरण दिल्ली के किसान आंदोलन से लेकर बिहार, उत्तराखंड तक देखने को मिल रहे हैं. बिहार सरकार ने तो फरमान ही जारी कर दिया है कि राज्य में विरोध, आंदोलन, धरना, प्रदर्शन करने वालों को सरकारी नौकरी नहीं दी जाएगी, दूसरी ओर उत्तराखंड में तो निजता और अभिव्यक्ति के अधिकार पर ही सीधा हमला बोलते हुए यह तय कर दिया गया कि अब हर व्यक्ति के सोशल मीडिया प्रोफाइल को देखा जाएगा कि उसने कभी कोई ऐसा पोस्ट तो नहीं किया है, जो पुलिस की नजर में ‘आपत्तिजनक या देशद्रोह’ दिखता है, उसका पासपोर्ट वेरिफिकेशन पुलिस नहीं करेगी. इन फैसलों से चौतरफा सियासी तूफान खड़ा हो गया है और तीखी आलोचना हो रही है.
लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए धरना-प्रदर्शन स्थलों तक न पहुंच पाएं, इसके लिए सड़क पर खाई खोदने, कंटीले तार बिछाने, बैरिकेड्स खड़े करने से लेकर रास्तों पर बड़ी-बड़ी कीलें गाड़ने जैसे काम तो लोग देख ही रहे हैं. लेकिन बिहार और उत्तराखंड में पुलिसिया फरमान सबको हैरान करने वाले हैं. 3 जनवरी 2021 यानी बुधवार को इन दोनों राज्यों से सामने आईं दो खबरें उस हर शख्स को परेशान करने वाली थीं, जो लोकतंत्र और संविधान में भरोसा रखता है.
बिहार के फरमान पर एक नजर
बिहार सरकार ने पुलिस प्रशासन के माध्यम से जारी आदेश में कहा है कि अगर कोई भी सरकार या फिर किसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करता है या सड़क पर चक्का जाम करता है, या वहीं किसी आपराधिक कृत्य में शामिल मिलता है, तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी. ऐसा व्यक्ति सरकारी ठेका पाने के अपात्र माना जाएगा. पुलिस वेरिफिकेशन में उसकी विशिष्ट रूप में प्रविष्टि की जाएगी. इस फरमान का सीधा मतलब ये है कि कोई युवा, छात्र अपनी मांगों को लेकर अपने संस्थान और सरकार के फैसलों या व्यवस्थाओं के खिलाफ प्रदर्शन नहीं कर पाएगा. दूसरे अगर वह किसी संगठन या दल के साथ किसी भी प्रकार के आंदोलनों में शामिल नहीं पाएगा. ऐसा करते अगर वो पाया गया और उसके खिलाफ इस बात को लेकर प्रकरण दर्ज हुआ, तो सरकार उसे दागी या अपनी नौकरी के अपात्र मान लेगी.
बिहार के फरमान पर एक नजर
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बागड़ ही खा रही है खेत
आंदोलनों की जमीन से पैदा हुए और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे नीतीश कुमार खुद ऐसा करेंगे करेंगे, इसका भरोसा आसानी से नहीं होता. नीतीश कुमार ही क्यों बिहार में लालू यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव, यूपी में मुलायम सिंह यादव जैसे तमाम लोग छात्र आंदोलन से पैदा हुए और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ समाजवादी आंदोलन में तपकर बड़े राजनेता बने और सत्ता के शिखर तक पहुंचे. मंत्री, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री बने. अब वही नीतीश कुमार इस लोकतांत्रिक अधिकार को युवाओं, जनता से छीन रहे हैं.
बागड़ ही खा रही है खेत
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राजद-कांग्रेस ने की तीखी आलोचना
ऐसे में लालू यादव के बेटे और बिहार विधानसभा में नेता-प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का ट्वीट गौर करने लायक है, जिसमें लिखा कि ‘मुसोलिनी और हिटलर को चुनौती दे रहे नीतीश कुमार कहते हैं कि अगर किसी ने सत्ता-व्यवस्था के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन कर अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल किया तो आपको नौकरी नहीं मिलेगी, मतलब नौकरी भी नहीं देंगे और और विरोध भी प्रकट नहीं करने देंगे. बेचारे 40 सीट के मुख्यमंत्री कितने डर रहे हैं.’ राजद ने उनके ट्वीट को रिट्वीट करते हुए लिखा कि ‘बिहार को सजग, जागरूक और मुखर नागरिक नहीं चाहिए, सिर्फ गुलाम और कठपुतली चाहिए! न्यायालय को ऐसे मूल अधिकार पर कुठाराघात करने वाले निर्देशों पर स्वतः संज्ञान लेना चाहिए.’ बिहार कांग्रेस ने भी इस फैसले को अलोकतांत्रिक करार देते हुए कहा कि क्या बिहार में धरना-प्रदर्शन करना अपराध हो गया है, जनता इस फैसले का जवाब जरूर देगी.
राजद-कांग्रेस ने की तीखी आलोचना
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उत्तराखंड में सोशल मीडिया पोस्ट में झांकेगी पुलिस
इसी तरह उत्तराखंड में बीते मंगलवार को राज्य पुलिस महानिदेशक ने साफ कहा कि पुलिस सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर राष्ट्र विरोधी पोस्ट डालने वालों के सोशल मीडिया व्यवहार की जांच करेगी और पासपोर्ट या हथियार लाइसेंस के लिए अपना वेरीफिकेशन या सत्यापन नहीं करेगी. इस मौखिक फरमान पर कई सवाल उठ रहे हैं, लोग यह पूछ रहे हैं कि क्या अब पुलिस तय करेगी कि कौनसी पोस्ट व्यवस्था विरोधी, सरकार विरोधी, धर्म विरोधी या राष्ट्रविरोध है. उसे लोगों की सोशल मीडिया पोस्ट में झांकने का किसने अधिकार दिया, क्या यह निजता के अधिकारों का हनन नहीं हैं.
उत्तराखंड में सोशल मीडिया पोस्ट में झांकेगी पुलिस
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धरना-प्रदर्शन पर क्या कहता है संविधान
किसी भी तरह के धरना प्रदर्शन के लिए पहले से अनुमति लेना जरूरी है. कानून और व्यवस्था राज्य का मसला है. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (A) में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दिया गया है. वहीं अनुच्छेद 19 (1) (B) नागरिकों को अधिकार है कि वो अपनी मांग और किसी बात के विरोध के लिए शांतिपूर्ण तरीके से एक जगह इकट्ठा हों.
धरना-प्रदर्शन पर क्या कहता है संविधान
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अदालतों की टिप्पणी पर एक नजर
1.पिछले साल 15 जनवरी को नागरिकता कानून में संशोधन के विरोध में जामा मस्जिद में धरना प्रदर्शन करने गए भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर को जब गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया. तब उनकी एक याचिका पर तीस हजारी कोर्ट में दिल्ली पुलिस ने यह कहा कि धरना-प्रदर्शन के लिए भी इजाजत लेना पड़ती है, तब जज कामिनी लाऊ की टिप्पणी गौर करने लायक है, इसमें वह कहती हैं “कैसी इजाजत, आप ऐसे ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे जामा मस्जिद पाकिस्तान में हो. अगर वो पाकिस्तान में भी होती तो वहां भी धरना प्रदर्शन करने का अधिकार होता, वो भी अविभाजित भारत का हिस्सा ही था.’ तीस हजारी कोर्ट की जज ने कहा कि ‘जब संसद तक लोगों की आवाज नहीं पहुंचती तो लोगों को सड़क पर उतरना पड़ता है. मैंने कई नेताओं को धरना प्रदर्शन करके बड़े नेता और मंत्री बनते हुए देखा है. 2. 2011 में जब दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के दौरान शांति पूर्ण प्रदर्शन के दौरान हिस्सा ले रहे बाबा रामदेव के समर्थकों पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने अपने अहम् फैसले में कहा था कि शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार है. ये किसी भी तरह से उनसे छीना नहीं जा सकता. कार्यपालिका या न्यायपालिका, किसी भी कार्रवाई के जरिए इस अधिकार को वापस नहीं ले सकती. इस तरह के कई महत्वपूर्ण फैसले अदालतों ने किए, जिनसे सरकारें सबक ले सकती हैं. (डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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