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कोरोना कहर के बीच चुनावी लहर

राजकुमार सिंह

मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा की लखनऊ में टिप्पणी कि सभी राजनीतिक दल समय पर चुनाव चाहते हैं, सत्ता-राजनीति की संवेदनहीनता का एक और उदाहरण है। चंद महीनों की आंशिक राहत के बाद देश एक बार फिर से कोरोना की लहर में फंसता दिख रहा है। लगभग सात माह के अंतराल के बाद नये कोरोना मामलों का दैनिक आंकड़ा एक लाख पार कर गया है। बेशक कोरोना के इस कहर के बीच सरकारों ने आम जन जीवन पर पाबंदियां भी बढ़ायी हैं। कहीं रात्रि कर्फ्यू है तो कहीं वीकेंड कर्फ्यू भी है। सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों में हाजिरी 50 प्रतिशत तक सीमित कर दी गयी है। शिक्षण संस्थानों पर एक बार फिर से ताले लग गये हैं तो बाजार भी शाम से ही बंद होने लगे हैं। बिना वैक्सीनेशन आवागमन आसान नहीं रह गया है तो कहीं-कहीं उसके बिना वेतन पर भी रोक है, लेकिन दिनोंदिन बढ़ती इन पाबंदियों के बीच भी एक चीज पूरी तरह खुली है—और वह है राजनीति, खासकर फरवरी-मार्च में आसन्न विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में। समाचार माध्यमों में दिखाये जाने वाले फोटो-वीडियो साक्षी हैं कि हमारे ज्यादातर राजनेता जीवन रक्षक बताया जाने वाला मास्क पहनने से ज्यादा जरूरी अपना चेहरा दिखाना समझते हैं। मास्क न पहनने वालों के चालान काटने से हुई कमाई का आंकड़ा बता कर अपनी पीठ थपथपाने में शायद ही कोई राज्य सरकार पीछे रही हो, लेकिन यह किसी ने नहीं बताया कि सत्ता का चाबुक क्या किसी सफेदपोश पर भी चला!

जब ज्यादातर नेताओं का यह आलम है तो फिर कार्यकर्ताओं से आप क्या उम्मीद करेंगे? बेशक नये कोरोना मामलों का दैनिक आंकड़ा एक दिन पहले ही एक लाख पार गया है, लेकिन नये ओमीक्रोन वेरिएंट की दिसंबर में आहट के साथ ही तमाम जानकारों ने आगाह कर दिया था कि तीसरी लहर, दूसरी लहर से ज्यादा प्रबल साबित होगी। उसके बाद भी पंजाब से लेकर गोवा तक राजनीतिक दलों-नेताओं की सत्ता लिप्सा पर कहीं कोई लगाम नजर नहीं आती। यह स्थिति तब है, जब बेकाबू दूसरी लहर और बदहाल स्वास्थ्य तंत्र के चलते अस्पतालों से श्मशान तक के हृदय विदारक दृश्य लोग भुला भी नहीं पाये हैं। किसी मारक महामारी से निपटने में हमारा स्वास्थ्य तंत्र खुद कितना बीमार नजर आता है, पूरी दुनिया देख चुकी है। जान बचाना तो दूर, हमारी सरकारें मृतकों का सही आंकड़ा तक नहीं बता पायीं।

पहली लहर के हालात से सबक लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के बड़े-बड़े दावों की पोल दूसरी लहर में खुल चुकी है। कौन दावा कर सकता है कि दूसरी लहर के वक्त किये गये वैसे ही दावों की पोल तीसरी लहर में नहीं खुल जायेगी, क्योंकि घटती समस्या के मद्देनजर उससे मुंह मोड़ लेने की हमारे तंत्र की फितरत तो बहुत पुरानी है। हमारी ज्यादातर समस्याओं के मूल में आग लगने पर कुआं खोदने वाली यह मानसिकता ही है। पर मानसिकता तो तब बदले, जब मन बदले, लेकिन मन तो सत्ता-सुंदरी में इस कदर रमा है कि कुछ और नजर ही नहीं आता। हमारी राजनीति इस कदर चुनावजीवी हो गयी है कि एक चुनाव समाप्त होता है तो दूसरे की बिसात बिछाने में जुट जाती है। ऐसे में सुशासन तो बहुत दूर की बात है, शासन के लिए भी समय मुश्किल से ही मिल पाता है।

मुख्य चुनाव आयुक्त की टिप्पणी से पहले से ही देश में बहस चल रही है कि जब जान और जहान, दोनों खतरे में हैं, तब अतीत से सबक लेकर आसन्न चुनाव स्थगित क्यों न कर दिये जायें। दरअसल मुख्य चुनाव आयुक्त की वह टिप्पणी भी इसी बहस और इससे उपजे सवाल के जवाब में ही आयी। उस टिप्पणी के बाद भी बहस जारी है कि दूसरी लहर में गयीं अनगिनत इनसानी जानों से सबक लेकर तीसरी लहर में मानवीय क्षति से बचने के लिए पांच राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनाव स्थगित करने की पहल और फैसला किसे करना चाहिए या कौन कर सकता है? याद रहे कि पिछले साल दूसरी कोरोना लहर के आसपास हुए विधानसभा चुनाव से संक्रमण को मिली घातक रफ्तार और उससे हुई जनहानि के लिए मद्रास उच्च न्यायालय ने सीधे-सीधे चुनाव आयोग को जिम्मेदार ठहराया था।

उच्च न्यायालय की टिप्पणियों से तिलमिलाया चुनाव आयोग उनके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में भी गया था, लेकिन यह कभी नहीं बताया कि अगर वह नहीं, तो चुनाव प्रचार के दौरान तेज रफ्तार कोरोना संक्रमण के लिए कौन जिम्मेदार था? माना कि हमारा दंतविहीन चुनाव आयोग चुनाव स्थगित करने जैसा फैसला नहीं ले सकता, पर चुनाव प्रचार के लिए ऐसे प्रावधान तो कर सकता है, जो संक्रमण की रफ्तार रोकने में मददगार हों। पिछले साल के चुनावों में अगर बड़ी रैलियों-सभाओं पर पाबंदियों समेत वैसे प्रावधान किये गये होते तो शायद दूसरी लहर का कहर उतना मारक नहीं हुआ होता। विडंबना यह है कि उससे सबक लेकर चुनाव आयोग ने अभी तक आसन्न चुनावों के लिए भी वैसा कोई कदम नहीं उठाया है। जब कोरोना का प्रकोप कम था, तब निर्धारित समय से पहले भी तो यह चुनाव करवाये जा सकते थे?

हमारे संविधान में चुनाव स्थगन सिर्फ आपातकाल में ही संभव है, पर क्या एक संक्रामक महामारी के चलते लाखों नागरिकों की अकाल मौत और वैसी ही आशंका फिर गहराना आपातकाल नहीं है? आदर्श स्थिति होगी कि हमारे राजनीतिक दल-नेता सत्ता लिप्सा से उबर कर तकनीकी-कानूनी बहस में फंसने के बजाय व्यापक राष्ट्रहित में कुछ माह के लिए चुनाव स्थगन पर सहमति तलाशें, जो संविधान संशोधन के माध्यम से संभव भी है। बेशक जानकारों के मुताबिक, अक्सर संकटमोचक की भूमिका निभाने वाला सर्वोच्च न्यायालय भी जन जीवन की रक्षा में ऐसी पहल कर सकता है, पर सवाल वही है कि जीवंत लोकतंत्र के स्वयंभू ठेकेदार राजनीतिक दल और नेता भी कभी किसी राष्ट्र हित-जन हित की कसौटी पर खरा उतरेंगे? नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल कोरोना के कहर के चलते दुनिया के अनेक देशों में चुनाव स्थगित कर विलंब से करवाये गये थे। अगर हमारी सत्ताजीवी राजनीतिक व्यवस्था राष्ट्र हित-जन हित में ऐसा फैसला नहीं ले पाती, तब कम से कम उसे चुनाव प्रचार के सुरक्षित तौर-तरीके तो अवश्य ही अपनाने चाहिए, जिनके लिए चुनाव आयोग के निर्देशों की प्रतीक्षा भी जरूरी नहीं। याद रखें : जनता के लिए सत्ता होती है, सत्ता के लिए जनता नहीं।

हम कई साल से डिजिटल इंडिया का शोर सुन रहे हैं। अगर आबादी के साधन विहीन अशिक्षित बड़े वर्ग पर डिजिटल जिंदगी थोपी जा सकती है तो हमारे सर्व साधन संपन्न राजनीतिक दल और नेता अपनी राजनीति भी डिजिटल क्यों नहीं करते? बिहार और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान वर्चुअल रैलियों का प्रयोग किया भी गया था। वैसे भी हमारे ज्यादातर नेता आजकल सोशल मीडिया के जरिये ही मीडिया और जनता से संवाद करते हैं। तब चुनाव प्रचार भी मीडिया के विभिन्न अवतारों के जरिये क्यों नहीं किया जा सकता? आकाशवाणी और दूरदर्शन पर राजनीतिक दलों को उनकी हैसियत के अनुसार समय आवंटित किया जा सकता है, तो वे समाचार पत्रों-निजी टीवी चैनलों पर भी अपने चुनाव व्यय से स्थान-समय खरीद सकते हैं। बड़ी रैलियों और रोड शो की राजनीति हमारे देश में ज्यादा पुरानी नहीं है।

हमारे राजनीतिक दल और नेता छोटी सभाओं और घर-घर संपर्क की पुरानी शैली फिर अपना सकते हैं। अगर आप हमेशा जनता के बीच रहते हैं तो जाहिर है, आप जनता को और जनता आपको बखूबी जानती भी होगी ही। ये पब्लिक है, सब जानती है! तब बड़ी रैलियां, रोड शो और लोक लुभावन घोषणाएं बहुत तार्किक, सार्थक नहीं लगतीं। ऐसे में कोरोना संकट एक अवसर भी है हमारी खर्चीली-दिखावटी चुनाव प्रचार शैली को वापस जनता और जमीन से जोडऩे का। अगर नेता संयम और अनुशासन अपनायेंगे, तो उनके कार्यकर्ता भी ऐसा करने को बाध्य होंगे और जनता अनुसरण को प्रेरित, वरना आत्मघाती लापरवाही की हद तो हम पर्यटन स्थलों से लेकर बाजारों तक देख ही रहे हैं।

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