राजनीतिक दलों पर नकेल लगाना जरूरी
अनूप भटनागर
अब समय आ गया है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए विकास की बजाय मतदाताओं को मुफ्त बिजली-पानी, कंप्यूटर, स्कूटी और साइकिल के साथ ही मासिक भत्ता देने जैसे आर्थिक वादों को जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में शामिल किया जाए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भ्रष्टाचार मिटाने का जोर-शोर से वादा करने वाले राजनीतिक दलों को इस दिशा में पहल करनी होगी और केन्द्र सरकार को मुफ्त रेवडिय़ां देने जैसे चुनावी वादों को भ्रष्ट आचरण के दायरे में शामिल करने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करना होगा।
देश और प्रदेश के विकास तथा जन कल्याण की योजनाएं बनाने और उन पर अमल करने की बजाय आज राजनीतिक दल चुनावी वादों में मतदाताओं को प्रलोभन दे रहे हैं। सत्ता में आने पर कोई भी दल इस तरह के प्रलोभन देने वाले वादों पर अमल करता है तो इससे प्रदेश के राजस्व को ही नुकसान होगा और इससे विकास कार्यों में बाधा पड़ेगी।
ऐसी स्थिति से बचने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके यह प्रावधान करने पर विचार होना चाहिए कि चुनाव के बाद सत्ता पर काबिज होने वाला दल अगर ऐसे आर्थिक प्रलोभन वाले चुनावी वादों पर अमल करता है तो इससे होने वाले राजस्व के नुकसान के एक हिस्से की भरपाई सत्तारूढ़ दल को करनी होगी, जिसमें प्रलोभन देकर मतदाताओं को लुभाने की प्रवृत्ति पर अंकुश संभव हो सकेगा।
पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा की जनता से इस समय किये जा रहे चुनावी वादे इस बात का संकेत हैं कि देश की राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का तेजी से ह्रास हो रहा है। राजनीतिक दलों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि प्रदेश की जनसंख्या और राजस्व की स्थिति के मद्देनजर इन वादों को कैसे पूरा किया जायेगा और इन पर प्रतिवर्ष कितना खर्च आएगा और प्रदेश की जनकल्याण योजनाओं का क्या होगा?
मतदाताओं को मुफ्त में रेवडिय़ां देने के साथ ही अब मासिक भत्ता देने जैसे वादे समाज के सभी वर्गों को आकर्षित और प्रभावित करते हैं। लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि ऐसे वादे लोकतंत्र की पवित्रता को प्रभावित करने के साथ ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की प्रक्रिया को खोखला कर रहे हैं।
चुनाव घोषणा पत्रों में जनता से किये जा रहे वादे इस समय जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में नहीं हैं, लेकिन अगर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखने की तरह ही चुनाव प्रक्रिया को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना है तो इसके लिए इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना जरूरी है।
इस समस्या पर देश की शीर्ष अदालत भी चिंता व्यक्त कर चुकी है और उसने करीब आठ साल पहले जुलाई, 2013 में अपने फैसले में कहा था कि मुफ्त रेवडिय़ां बांटने के वादे करने वाले राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के लिए अलग से कानून बनाने पर विचार किया जा सकता है।
विडंबना है कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पूरी तरह स्वच्छ और पवित्र बनाये रखने की जो जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है, उसे न्यायपालिका पूरा कराने का प्रयास कर रही है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपराधीकरण, बाहुबल और धनबल से मुक्त कराने में न्यायपालिका ने काफी हद तक सफलता पा ली है लेकिन अभी भी चुनाव सुधारों की दिशा में काफी कुछ करने की जरूरत है। निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका इस दिशा में प्रयास भी कर रही है लेकिन राजनीतिक लाभ-हानि को ध्यान में रखते हुए कई मुद्दों पर सर्वदलीय बैठकों में राष्ट्रीय और राज्य स्तर के मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों की इन पर आम सहमति नहीं बन पा रही है। न्यायपालिका की सख्त टिप्पणियों के बावजूद राजनीतिक दलों में देश और प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों और राजस्व को हानि पहुंचाने वाले वादे करके मतदाताओं को प्रलोभन देने की होड़ लगी है।
न्यायालय ने 2013 में निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि चुनाव की घोषणा के साथ ही लागू होने वाली आदर्श आचार-संहिता में अलग से राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों के संबंध में भी प्रावधान किया जाये।
न्यायालय के निर्देश के बाद निर्वाचन आयोग ने आदर्श आचार-संहिता में एक नया उपबंध शामिल किया, जिसमें मतदाताओं को प्रभावित करने वाली तमाम घोषणायें करने पर प्रतिबंध लगाए गए थे। लेकिन राजनीतिक दलों पर इसका कोई असर नहीं हुआ और वे आज भी मुफ्त सुविधाएं देने ही नहीं, बल्कि मासिक भत्ता देने जैसे वादे कर रहे हैं।
मतदाताओं को आकर्षित करने के लिये टेलीविजन, मंगलसूत्र, प्रेशर कुकर और ऐसी ही दूसरी वस्तुएं देने के वादे का सिलसिला 2006 में तमिलनाडु से शुरू हुआ। इसके बाद मतदाताओं को आईफोन देने, घर देने जैसे भी वादे किये जाने लगे। लेकिन धीरे-धीरे यह बीमारी दूसरे राज्यों में भी फैल रही है और यहां मतदाताओं को लुभाने के लिए बिजली-पानी, स्कूटी, लैपटॉप और महिलाओं को एक हजार रुपये महीने का भत्ता, महिलाओं को नि:शुल्क यात्रा और वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त तीर्थ यात्रा कराने तक के वादे किये जा रहे हैं। अब इस बीमारी का इलाज जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन ही नजर आता है।