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महानायक के विचार ही सच्चा स्मारक

विश्वनाथ सचदेव(वरिष्ठ पत्रकार )

साठ-पैंसठ साल पुरानी बात है। स्कूल में पढऩे के दिन थे मेरे। एक कविता पढ़ी थी उन्हीं दिनों। हमारे पाठ्यक्रम में थी। उसकी शुरुआती पंक्तियां मुझे आज भी याद हैं—‘है समय नदी की धार/ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं… लेकिन कुछ ऐसे होते हैं/ इतिहास बनाया करते हैं/ यह उसी वीर, इतिहास-पुरुष की/ अनुपम-अमर कहानी है/ जो रक्तकणों से लिखी गयी/ जिसकी जयहिंद निशानी है…।’ यह कहानी सुभाषचंद्र बोस की थी जिन्हें देश नेताजी के नाम से याद करता है। नेता की छवि आज भले ही कैसी भी बना दी गयी हो, पर नेताजी उचारते ही जो छवि मानस-पटल पर छा जाती है, वह सुभाषचंद्र बोस की है।

सुभाष दो बार कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गये थे। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, जैसे स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ जो नाम अनायास जुड़ जाता है वह सुभाषचंद्र बोस का ही है। उन्होंने हमारी आज़ादी की लड़ाई को एक नया आयाम दिया था। गांधीजी और नेहरू को वे पूरा सम्मान देते थे, पर उन्होंने लड़ाई का अपना रास्ता चुना। आज़ाद हिंद फौज की स्थापना करके नेताजी ने हमारी आज़ादी की लड़ाई को एक निर्णायक मोड़ पर ला खड़ा किया था। वह विवाद निरर्थक है कि आज़ादी गांधी के रास्ते से मिली या सुभाष के। महत्वपूर्ण यह है कि हमारी आज़ादी भी लड़ाई के इन नायकों में मतभेद के बावजूद कभी मन-भेद नहीं आया। रास्ता चाहे गांधी का हो या भगतसिंह का या सुभाष का, मंजि़ल एक ही थी—स्वतंत्र भारत।

आज हम स्वतंत्र है। अपनी स्वतंत्रता का 75वां वर्ष यानी अमृत महोत्सव मना रहे हैं। यह अवसर उन सबके प्रति कृतज्ञता अर्पित करने का भी है, जिनके नेतृत्व में हमने यह स्वतंत्रता पायी। नेताजी की 125वीं जयंती के अवसर पर राजधानी दिल्ली में ऐतिहासिक इंडिया गेट पर उनकी भव्य मूर्ति का लगाया जाना, इसी कृतज्ञता-ज्ञापन का एक तरीका है। आज़ाद हिंद फौज के सिपाहियों को नेताजी ने ‘दिल्ली चलो’ का लक्ष्य दिया था, और जय-हिंद के नारे के साथ भारत के सिपाही भारत की आज़ादी की राह पर चल पड़े थे। 15 अगस्त, 1947 को लाल किले पर तिरंगा फहरा कर कृतज्ञ राष्ट्र ने अपने ‘नेताजी’ के प्रति कृतज्ञता अर्पित की थी। देश के पहले प्रधानमंत्री बने जवाहरलाल नेहरू ने उस दिन तीन बार जय-हिंद का नारा लगाकर अपने ‘छोटे भाई’ और देश के ‘नेताजी’ के प्रति सम्मान ही प्रकट किया था।

नेताजी की 125वीं जयंती के अवसर पर उन्हें याद करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहना भी ज़रूरी समझा कि देश आज अतीत की गलतियों को ठीक करने की राह पर है। ‘गलतियों’ से उनका अभिप्राय कुछ स्वतंत्रता सेनानियों की कथित उपेक्षा से था। सरदार वल्लभभाई पटेल, बाबा साहेब अम्बेडकर और विरसा मुंडा जैसी विभूतियों का नाम लेकर उन्होंने उन्हें सम्मान देने के सरकार के प्रयासों की चर्चा की। यह पहली बार नहीं है जब हमारे प्रधानमंत्री ने कुछ विभूतियों की उपेक्षा की बात कही है। सरदार पटेल के संदर्भ में भी वे इस प्रकार की बात कह चुके हैं। सच तो यह है कि आज़ादी की लड़ाई लडऩे वाले लाखों भारतीयों में से हर एक हमारी श्रद्धा का पात्र है। यह कृतज्ञ राष्ट्र उस हर भारतीय के प्रति नतमस्तक है, जिसने उस लड़ाई में योगदान किया। किसका योगदान ज़्यादा था, किसका कम, यह मायने नहीं रखता। बलिदान बलिदान होता है, उसे नाप-तोल कर कम या ज़्यादा नहीं आंका जा सकता है। यह राष्ट्र उन सबका चिर-कृतज्ञ रहेगा। उनके बलिदान को राजनीति का हथियार बनाना अपने आप में किसी अपराध से कम नहीं।

जहां तक गांधी, सुभाष और नेहरू के रिश्तों का सवाल है, इतिहास साक्षी है कि सारे मतभेद के बावजूद इन तीनों का आपसी सम्मान का भाव कभी कम नहीं हुआ। गांधी ने सुभाष के कांग्रेस-अध्यक्ष बनने का विरोध किया था, यह सच है पर यह विरोध व्यक्तियों का नहीं, विचारों का था। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि गांधी को राष्ट्रपिता का सम्बोधन सबसे पहले सुभाष ने ही दिया था और यह भी एक सच्चाई है कि आज़ाद हिंद सेना के सेनापति सुभाष ने अपनी एक ब्रिगेड का नाम गांधी के नाम पर रखा था और दूसरी का नेहरू के नाम पर। गांधी सुभाष को अपना बेटा कहते थे और नेहरू को अपना भाई। ऐसे नेतृत्व के बीच मनभेद की बात कहना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं लगता।

इस सबके बावजूद किसी को यह लग सकता है कि नेताजी या किसी और स्वतंत्रता-सेनानी के योगदान को वह मान्यता नहीं मिली जो मिलनी चाहिए थी, पर यह ‘शिकायत’ किसी राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम नहीं बननी चाहिए। हमारे स्वतंत्रता सेनानी, हम सबके हैं। राजनेता भले ही कुछ भी सोचते-कहते रहें, इस देश की जनता के मन में सुभाषचंद्र बोस के प्रति जो श्रद्धा और सम्मान है, वह अनूठा है। सातवीं कक्षा में पढ़ी जिस कविता ने मुझे आंदोलन-प्रेरित किया था, वह आज भी, आज की पीढ़ी में भी, उतना ही जोश भरती है। सुभाष कल भी एक किंवदंती थे, आज भी हैं। कल भी रहेंगे।

सुभाष या पटेल या भगतसिंह जैसा व्यक्तित्व, इतिहास-पुरुषों का व्यक्तित्व है। ऐसे व्यक्तित्वों पर किसी एक व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र का वर्चस्व नहीं होता। वे समूची मानवता के होते हैं। उन्हें राजनीतिक सिद्धि का माध्यम बनाकर हम उनका अपमान ही करते हैं।

इंडिया गेट पर नेताजी की मूर्ति का लगना सचमुच उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का ही एक तरीका है। उनकी याद हमारी सामूहिक विरासत है। हर भारतीय का ही नहीं, हर मनुष्य का उन पर अधिकार है। निश्चित रूप से उनकी यह प्रतिमा आने वाली पीढिय़ों की प्रेरणा बनेगी। पर इस तरह के स्मारकों से इतिहास-पुरुषों का कद नहीं बढ़ता, और न ही किसी उपेक्षा से उनका कद घटता है। उनका कृतित्व और उनका व्यक्तित्व ही उनकी पहचान है। सुभाष की इस मूर्ति के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए नेताजी की बेटी अनीता बोस ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह कहना ज़रूरी समझा है कि नेताजी की मूर्ति नहीं, उनके विचार ही उनका सच्चा स्मारक हैं। वे आज़ादी के सिपाही थे, विचार की आज़ादी, अभिव्यक्ति की आज़ादी में विश्वास करते थे। धर्म और जाति के नाम पर किसी भी प्रकार का बंटवारा उन्हें मान्य नहीं था। वे मनुष्य की समानता में विश्वास करते थे, सांप्रदायिकता को मनुष्यता का अभिशाप मानते थे। सुभाषचंद्र बोस के इन आदर्शों-मूल्यों को समझ कर, स्वीकार कर ही हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धा व्यक्त कर सकते हैं। जयहिंद का जो मंत्र उन्होंने हमें दिया था, वह ऐसे ही भारत के लिए था।

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