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पहले भारतवंशी नायक की प्रेरक विरासत

विवेक शुक्ला

सोनी रामदीन के निधन से भारतवंशियों ने अपना पहला नायक खो दिया है। वेस्टइंडीज की क्रिकेट टीम के सदस्य के रूप में वे 1950 में इंग्लैंड के दौरे में गए थे। अपनी पहली ही सीरीज में सोनी रामदीन ने लेग ब्रेक गेंदबाज के रूप में अपनी छाप छोड़ी थी। वे पहले भारतीय मूल के खिलाड़ी बने, जिसे वेस्टइंडीज की टीम से खेलने का गौरव हासिल हुआ। उनके बाद ही भारतवंशियों को भरोसा होने लगा था कि वे अपने पुरखों के वतन से दूर पराए देश में भी अपनी जगह बना सकते हैं।
सोनी रामदीन का संबंध वेस्टइंडीज के कैरेबियाई टापू देश त्रिनिदाद और टोबैगो से था। इसी तरह भारत से बाहर बसे, लघु भारत कहलाए जाने वाले गयाना में छेदी जगन देश के 1961 में प्रधानमंत्री बन गए। उनके बाद तो कह सकते हैं कि मॉरीशस में शिवसागर रामगुलाम से लेकर अनिरुद्ध जगन्नाथ, त्रिनिदाद और टोबैगो में वासुदेव पांडे, सूरीनाम में चंद्रिका प्रसाद संतोखी वगैरह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने लगे। गयाना के वी.एस. नायपाल ने अंग्रेजी के लेखक के रूप में शब्दों के संसार में अपने लिये स्थायी जगह बना ली। गौर करें कि ये लगभग सब उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी जिलों से थे और इनकी सफलता में सोनी रामदीन का रोल था।

दरअसल, ब्रिटेन को 1840 के दशक में गुलामी का अंत होने के बाद श्रमिकों की जरूरत पड़ी, जिसके बाद भारत से गिरमिटिया मजदूर बाहर के देशों में जाने लगे। बेशक भारत के बाहर जाने वाला प्रत्येक भारतीय अपने साथ एक छोटा भारत लेकर जाता था। इसी तरह भारतवंशी अपने साथ तुलसी रामायण, भाषा, खान-पान एवं परंपराओं के रूप में भारत की संस्कृति लेकर गए थे। उन्हीं मजदूरों की संतानों के कारण फिजी, त्रिनिदाद, गयाना, सूरीनाम और मॉरीशस लघु भारत के रूप में उभरे।
इन श्रमिकों ने कमाल की जीवटता दिखाई और घोर परेशानियों से दो-चार होते हुए अपने लिए जगह बनाई। इन भारतीय श्रमिकों ने लंबी समुद्री यात्राओं के दौरान अनेक कठिनाइयों को झेला। अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर जाकर बसने के बावजूद इन्होंने अपने संस्कारों को छोड़ा नहीं। इनके लिए अपना धर्म, भाषा और संस्कार बेहद खास थे।

हालांकि, ये उन देशों के मूल्यों को भी आत्मसात करते रहे, जिधर ये बसे। पर ये सात समंदर पार जाकर बसे तो अपनी जातियों को भूल गए। अब शायद ही किसी गिरमिटिया परिवार को अपने पुरखों की जाति के बारे में पता हो। एक बार वासुदेव पांडे दिल्ली में कुछ पत्रकारों को बता रहे थे कि उनकी मां यादव परिवार से थी। पर उनके लिए जाति का कोई मतलब नहीं है।
सोनी रामदीन की जादुई स्पिन गेंदबाजी के बाद कैरेबियाई देशों में रहने वाले नौजवानों को कहीं न कहीं लगा कि वे खेलों में अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ सकते हैं। इसी के चलते रोहन कन्हाई, एल्विन कालीचरण, इंसान अली, शिव नारायण चंद्रपाल, राम नरेश सरवान आदि कितने ही खिलाड़ी वेस्टइंडीज से खेले और कइयों ने इसकी कप्तानी भी की। रामदीन से पहले यह कल्पना से परे की स्थिति थी। वे उस महान वेस्टइंडीज टीम का अहम हिस्सा थे, जिसमें वारेल, विक्स और वाल्कट यानी थ्री डब्ल्यू थे। उस टीम को महानतम क्रिकेट टीमों में से एक माना जाता है।

बात सिर्फ क्रिकेट तक की ही नहीं है। रामदीन की उपलब्धि के असर के चलते गयाना के अमेरिका में बस गए भारतवंशी ्गोल्फर विजय सिंह दुनिया के चोटी के गॉल्फ खिलाड़ी बने और फिजी में बसे एक गिरमिटिया परिवार का नौजवान विकास धुरासू फ्रांस की फुटबॉल टीम से फीफा विश्व कप में खेला। वेस्टइंडीज़ क्रिकेट का गुजरे दशकों से अध्ययन कर रहे क्रिकेट लेखक और कमेंटेटर रवि चतुर्वेदी की सोनी रामदीन से वेस्टइंडीज और इंग्लैंड में कई बार मुलाकातें हुईं। उनसे रामदीन भारत को लेकर हमेशा सवाल पूछते थे। वे यह भी जानना चाहते थे कि उनके पूर्वज भारत के किस भाग से वेस्टइंडीज में जाकर बसे थे। दुर्भाग्यवश उन्हें अपने गांव की पुख्ता जानकारी कभी नहीं मिली। ये स्थिति हजारों-लाखों भारतवंशियों के साथ रही। भारत के बाहर बसे संभवत: सबसे प्रख्यात सिख खिलाड़ी केन्या के अवतार सिंह सोहल तारी कहते हैं ‘सोनी रामदीन अफ्रीका तक में बसे भारतवंशी खिलाडिय़ों के लिए किसी रोल म़ॉडल से कम नहीं थे।

उनके बाद हम रोहन कन्हाई से प्रभावित होते थे। रामदीन का नाम अखबारों में पढक़र बहुत अच्छा लगता था।’ तारी ने 1960, 1964, 1968 और 1972 के ओलंपिक खेलों के हॉकी मुकाबलों में केन्या की नुमाइंदगी की है। फुलबैक की पोजीशन पर खेलने वाले तारी तीन ओलंपिक खेलों में केन्या टीम के कप्तान थे। वे क्रिकेट के भी खिलाड़ी रहे हैं। केन्या और बाकी ईस्ट अफ्रीकी देशों में भारतीयों को 1896 से लेकर 1920 तक गोरी सरकार रेल लाइनों को बिछाने के लिए लेकर गए थे।
जरा सोचिए कि सोनी रामदीन जैसी महान भारतवंशी शख्सियत को कभी प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) सम्मेलन में आमंत्रित करने लायक नहीं समझा गया। पीबीडी में अनाम भारतवंशियों को सम्मानित किया जाता रहा पर सोनी रामदीन को कभी याद नहीं किया। उनके निधन पर भारत सरकार की तरफ से शोक भी व्यक्त नहीं किया गया।

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