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चीन की बेचैनी और तवांग

प्रो. सतीश कुमार
तवांग के मुद्दे को दो तरह से देखा जा सकता है। पहला, चीन के अंदरूनी हालात बहुत ठीक नहीं हैं। राष्ट्रपति शी जिनपिंग की राजनीतिक किश्ती भंवर में फंसी हुई दिख रही है।
उनकी मंशा आनन फानन में अपनी राजनीतिक हैसियत को माओ त्से तुंग, जो चीन में साम्यवादी व्यवस्था के सस्थापक थे, के बराबर लाकर खड़ा करने की है। जबकि सच्चाई यह है कि चीन का आर्थिक ढांचा 2013 के बाद से निरंतर लुढक़ता हुआ दिख रहा है। कूटनीतिक चुनौती ताइवान और जापान की तरफ से ज्यादा सख्त है। कोरोना के आघात से चोटिल चीन की साम्यवादी व्यवस्था लोगों के क्रोध का कोप भी झेल रही है।

ऐसे मौके पर पड़ोसी देशों से संघर्ष की बातें लोगों को भ्रमित करती हैं। चीन की इस दलील को नकारा नहीं जा सकता कि गलवान संघर्ष के बाद चीन ने तवांग को निशाना बनाया। दूसरा, चीन हर समय देखना चाहता है कि भारत की सैन्य और राजनीतिक व्यवस्था कितनी सजग और मजबूत है। दोकलाम, गलवान पुन: तवांग उसी सिद्धांत की पुष्टि करता है। चीन युद्ध नहीं करना चाहता है, लेकिन यह जरूर जानना चाहता है कि भारत किस हद तक तैयार है?

भारत-चीन की सेना के बीच अरु णाचल प्रदेश के तवांग में हुई झड़प का मुद्दा देश की संसद तक पहुंच गया है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह व गृह मंत्री अमित शाह ने तवांग संघर्ष पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है। इस बीच चीनी विदेश मंत्रालय ने तवांग संघर्ष पर बयान दिया। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनिबन ने कहा कि भारत के साथ सीमा पर स्थिति ‘स्थिर’ है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनिबन ने कहा कि भारत-चीन सीमा पर हालात कुछ दिनों के बाद फिर से सामान्य हैं। उन्होंने कहा कि सीमा पर दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच झड़प हुई थी। भारत के तवांग सेक्टर में शुक्रवार को आमने-सामने हुई झड़प में दोनों पक्षों के जवानों को चोटें भी आई हैं। हालांकि, वांग ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर के यांग्त्से क्षेत्र में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच 9 दिसंबर को हुए संघर्ष के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया। भारतीय वायु सेना की पूर्वोत्तर में मजबूत उपस्थिति है, और असम के तेजपुर और छाबुआ सहित कई स्थानों पर सुखोई-30 लड़ाकू विमान तैनात हैं। राफेल लड़ाकू विमानों को पश्चिम बंगाल के हाशिमारा में तैनात किया गया है। चीनी सेना की निगाहें एलएसी पर रही हैं,  लेकिन अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले को लेकर उसका मंसूबा बार-बार सामने आता रहा है। 1962 के युद्ध के समय चीन ने भारत के पूर्वोत्तर हिस्से में अपने सैनिकों के बड़े जत्थे से तवांग के रास्ते असम तक घुसपैठ करवाई थी। कुछ समय के लिए तवांग चीन के कब्जे में रहा था। अक्टूबर, 2021 में चीन के दो सौ सैनिकों का एक दल तवांग स्थित भारत-चीन-भूटान सीमा के पास भारतीय गांव में घुस आया था, जिसे बाद में भारतीय सैनिकों ने खदेड़ा था। इस बार भी चीनी सेना के मंसूबे कुछ ऐसे ही थे लेकिन भारतीय सैनिकों के सामने एक बार फिर चीनी सेना को मुंह की खानी पड़ी।

अमेरिका का वर्तमान चीन विरोध शीत युद्ध के माहौल से अलग है। 1950 से 1972 तक विरोध वैचारिक था, साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी, लेकिन 2016 से 2020 के बीच का द्वंद्व अस्तित्व की जद्दोजहद है। अमेरिका किसी भी कीमत पर चीन को दुनिया का मठाधीश बनते नहीं देख सकती, उसके लिए वह किसी हद तक जाने के लिए तैयार है। अमेरिका की इस सोच को अगर कोई भी देश सार्थक मदद देने की स्थिति में है, तो वह भारत है। भारत की भी अपनी जरूरतें हैं चीन को कमजोर करने में। कोरोना ने ऐसी भू-राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें चीन की रफ्तार न केवल रोकी जा सकती है, बल्कि तोड़ा भी जा सकता है, और उसके लिए तिब्बत से बेहतरीन और कोई विषय नहीं हो सकता। दशकों से चली आ रही आतंक और अलगाववाद की समस्या थम जाएगी, पड़ोसी देशो में भी भारत की धाक बढ़ जाएगी। कूटनीति में समय-परिस्थिति की अहम भूमिका होती है, अगर तीर सही समय पर कमान से नहीं निकला तो खुद के लिए भी घातक बन सकता है।

चीन की साख निरंतर विवाद के घेरे में है। 2013 के बाद से चीन की आर्थिक रफ्तार धीमी हुई है। पिछले कुछ महीनों में कुछ देशों ने चीन के विरु द्ध मुहीम भी शुरू कर दी है। जर्मनी ने चीन की 2 सॉफ्टवेयर कंपनी प्रतिबंधित कर दी हैं। जबूती, जो अफ्रीका का छोटा सा देश है, चीन के कर्ज के भार से दम तोड़ रहा है और उसने चीनी कर्ज नहीं लौटाने का फैसला किया है। जापान और ताइवान चीन के साथ मुठभेड़ की स्थिति में दिख रहे हैं। पश्चिमी दुनिया चीन के विरोध में गोलबंद हो गई है। लेकिन चीन को मालूम है कि असली मुकाबला तो भारत के साथ होना है। इसलिए भी कि 21 शताब्दी को एशियाई शताब्दी के रूप में जाना जा रहा है। भारत कूटनीति धारदार हुई है। रूस-यूक्रेन युद्ध में अगर किसी देश की बात को सबसे ज्यादा अहमियत दी गई है, तो ये भारत के प्रधानमंत्री के शब्द थे। भारत अमेरिका का साथ नहीं देते हुए भी अमेरिकी समीकरण का सबसे मुख्य हिस्सा बना हुआ है। रूस की युद्ध नीति के विरोध के बावजूद भारत-रूस संबंध मजबूत बनते गए। यह सब कुछ चीन की आंखों में किरकिरी के सामान था। चीन अपने एकमुश्त आर्थिक जाल के जरिए सामरिक समीकरण की बिसात बिछाने में फेल प्रतीत हो रहा है।

इसलिए आनन फानन में चीन ने गलवान के साथ तवांग को भी विवाद के घेरे में खड़ा कर दिया है। चीन की हठधर्मिंता सम्भवत: जारी रहेगी क्योंकि उसे लगता है कि भारत के साथ युद्ध जैसी स्थिति पैदा करके वह अपने खिलाफ बन रहे समीकरण को तोड़ देगा, या इसे बनने नहीं देगा। लेकिन उसके दुश्मन एक नहीं, बल्कि हर मुहाने पर खड़े हैं। दक्षिण चीन सागर पर चीन के पड़ोसी देश वर्षो से डंक के साथ तैयार हैं। उन्हें केवल समर्थन की जरूरत है। ताइवान ने विगुल पहले ही बजा दिया है। कोरोना महामारी  के बाद से यूरोप पूरी तरह से चीन के विरोध में है। चीन भारत के साथ संघर्ष की स्थिति पैदा करके अपनी मुसीबत को बड़ा कर रहा है जबकि उसकी अंदरूनी स्थिति प्रतिकूल है। ऐसे हालात में भारत के साथ दुश्मनी उसे महंगी पड़ेगी। चुनौती भारत के लिए भी है, लेकिन भारत दुनिया की नजरों में और सामरिक ढंग से मजबूत हालत में है।

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