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बिहार में शराबबंदी : पार पाने का हौसला दिखाना होगा

डा. भीम सिंह भावेश
बिहार में शराबबंदी अपने अबतक के सबसे वीभत्स रूप में है। राज्य के सारण जिला में जहरीली शराब पीने से करीब 50 लोगों की मौत की खबर के दूसे दिन दूसरे जिले में भी लोगों के मरने की खबर से राज्य की राजनीति का पारा गर्मा गया है।

इस घटना ने सूबे में शराबबंदी को लेकर एक साथ कई सवाल खड़े कर दिए हैं। लोक सभा में इस मुद्दे पर तीखी बहसें हुई। बिहार विधानसभा में आरोपों के बौछार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का तमतमाया चेहरा और गुस्से में लरजती उनकी आवाज से राज्य में शराबबंदी की दशा और दिशा का बखूबी पता चलता है।

शराबबंदी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक महत्त्वकांक्षी योजना है। ‘आइए, हम सब मिलकर नशा मुक्त बिहार बनाएं’ स्लोगन को वे बड़े गर्व के साथ प्रस्तुत करते हैं। वर्ष 2011-12 से 2005-16 तक राज्य में पंचायत स्तर तक कम्पोजिट शराब दुकानें और वार्ड तक परचुनिया दुकानों की बाढ़ आ गई थी। राशन दुकानों की भांति देसी, विदेशी एवं मसालेदार शराब की दुकानें आवंटित थीं। तब पियक्कड़ों के कारण विशेषकर महिलाओं का घर से निकलना दूभर हो गया था। नतीजतन नीतीश ने 1 अप्रैल, 2016 से शराबबंदी का दृढ़ निर्णय लिया, जबकि इस निर्णय से राज्य को 4 हजार करोड़ रुपये का भारी राजस्व की क्षति का अनुमान था।

विपक्ष का आरोप भी सही प्रतीत होता है कि बीते सात साल में बिहार को एक लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है। लिहाजा पैसे कहां से आएंगे, यह सवाल तो राज्य के मुखिया से पूछा जाना चाहिए। जिस पैसे से बिहार का भला होता उसका भी नुकसान हो रहा है। हालांकि नीतीश तमाम दबाव के बावजूद अपने फैसले से रत्ती भी पीछे नहीं हटने को तैयार हैं। उनका तर्क है कि शराब पीना बुरी आदत है और जो इसका सेवन करेगा, वह अपनी जान गंवाएगा। अपने इस फैसले को और ज्यादा सख्त बनाने के लिए उन्होंने शराब पीकर मरने वालों को सरकारी सहायता राशि भी देने से मना कर रखा है।

बहरहाल, शराबबंदी की निंदा करने के तमाम तर्क विपक्षी दलों, विशेषज्ञों और शराब से जुड़े व्यवसाय करने वाले दें, किंतु इस तथ्य से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि शराबबंदी से राज्य में खुशहाली का ग्राफ भी ऊपर चढ़ा है। मद्यनिषेध विभाग के सव्रे में बताया गया है कि राज्य की 100 फीसद महिलाएं शराबबंदी के निर्णय से बेहद खुश हैं। वो रात में बेखौफ होकर घूम सकती हैं, जो पहले कल्पना से परे बात थी। निश्चित तौर पर इस ‘बोल्ड’ फैसले का नीतीश को सियासी फायदा भी पहुंचा। उन्हें महिलाओं के एकमुश्त वोट भी मिले, मगर जहरीली शराब से हो रही मौतों ने नीतीश और गठबंधन सरकार को बैकफुट पर ला दिया है। हाल ही में संपन्न कुढऩी विधानसभा उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी को मिली हार की एक वजह गरीब-गुरबों और पिछड़ी जातियों के लोगों का शराबबंदी कानून के तहत जेल जाने को बताया जा रहा है।

स्वाभाविक है नीतीश चौतरफा घिर चुके हैं। उन्हें इस बात पर गहन मंथन करना होगा कि यह कानून सफल क्यों नहीं हो पा रहा है, आखिर इसके औंधे मुंह गिर जाने की वजह क्या है आदि। जब तक इन सब बातों का सही तरीके से आकलन नहीं होगा, लोग मरते रहेंगे। हां, कुछ नियमों में बदलाव किए जाएं तो परिणाम सुखद होने की गुंजाइश जरूर परवान चढ़ सकती है। मसलन, एक मजबूत ‘एंटी लिकर सेल’ का गठन बिना वक्त गंवाये सरकार को करना चाहिए। आबकारी का मसला बिल्कुल अलहदा है, सो सरकार को इसे पूर्ण रूप से आबकारी महकमे को सौंप देना चाहिए और पुलिस को इससे बिल्कुल अलग कर देना चाहिए। राज्य की सीमा वाले इलाके में पेट्रोलिंग के साथ-साथ जागरूकता के कार्यक्रम भी चलाने होंगे। अगर शराबबंदी को शत-प्रतिशत सफल बनाना है तो बिहार की सरकार को गुजरात से भी सीखने की जरूरत है। वहां अगर किसी मरीज को डॉक्टर ने शराब पीने की सलाह दी जाती है तो वह शराबंदी कानून के दायरे में नहीं आता है। उसी तरह कोई बाहर से लाकर अपने घर में शराब का सेवन करे तो वह गैरकानूनी नहीं माना जाता है, जबकि बिहार में नियम बिल्कुल इसके उलट है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार इस मसले पर आंखें मूंदे बैठी है। शराबबंदी की सफलता को लेकर सरकार जल, थल और नभ तीनों जगह शिंकजा कसने की रणनीति पर काम करती रही है। स्पीड बोट, पर्याप्त पुलिस बल, ान दस्ता तथा ड्रोन आदि की व्यवस्था की गई। चेक पोस्टों के लिए हैंड स्कैनर का उपयोग किया जा रहा है। सभी जिलों में एंटी लिकर टास्क फोर्स (एएलडीएफ) की 186 टीमें कार्य कर रही हैं। उत्पाद विभाग एवं पुलिस विभाग का संयुक्त अभियान चलता रहा। इसके बावजूद राज्य में बदस्तूर जाम के छलकने की असल वजह जानने और समझने की हर किसी को जरूरत है। नीतीश ने जिस मनोदशा में शराबंदी लागू करने का फैसला किया, अब उस निर्णय को सफल बनाने की प्रतिज्ञा उन्हें लेनी होगी।

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