भारतीय राजनीति में महिलाओं का स्थान और 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग
कंचना यादव
बहुत गर्व होता है जब हम यह बोलते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि इसी देश की आधी आबादी का लोकतंत्र में योगदान केवल मतदान तक सीमित है। राजनीतिक भागीदारी का मतलब केवल मतदान के अधिकार तक सीमित रहना नहीं है बल्कि अन्य भागीदारी से भी सम्बंधित है जैसे निर्णय लेने की प्रक्रिया, राजनीतिक सक्रियता, राजनीतिक चेतना, आदि।
वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार, भारत में राजनीतिक सशक्तिकरण सूचकांक में 13.5 प्रतिशत अंकों की गिरावट आई है और महिला मंत्रियों की संख्या में 2019 में 23.1त्न से 2021 में 9.1त्न की गिरावट आई है। कई देशों की तुलना में अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद भी भारत राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में 51 वें स्थान पर है। भारतीय महिलाओं की राजनीति में भागीदारी, सूचकांक के अन्य आयामों जैसे आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक प्राप्ति, स्वास्थ्य और अस्तित्व से काफी बेहतर है।
मंत्री पदों पर पुरुषो की अपेक्षा महिलाओं की कम संख्या, राजनीतिक निर्णय लेने में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की कम संख्या, संसदीय पदों पर महिलाओं की कम संख्या, कुल महिलाओं में बहुजन समाज की महिलाओं की राजनीति में नगण्य भागीदारी, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए बहुत ही निंदनीय और शर्मिंदगी भरा है। 1963 से भारत में 16 महिला मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, जिनमें से अधिकांश भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की थीं। कुल 28 राज्यों में पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी भारत की एकमात्र मौजूदा महिला मुख्यमंत्री हैं।
भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में वर्तमान में मुख्यमंत्री सहित 53 मंत्री हैं, 23 कैबिनेट मंत्री, 9 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री और 21 राज्य मंत्री हैं। 53 मंत्रियों में से 52 भाजपा के हैं जबकि एडी (एस) के पास 1 मंत्री है। योगी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार के बाद उत्तर प्रदेश में अब महिलाओं की भागीदारी घटकर चार के आस पास हो गई है। उत्तर प्रदेश में आने वाले आगामी चुनाव को देखते हुए बीजेपी के दूसरे कार्यकाल के पहले कैबिनेट फेरबदल में महिलाओं की संख्या बढ़ाकर 11 की गयी। लेकिन फिर वही सवाल खड़ा होता है कि मंत्री परिषद में सिर्फ 11 महिलाएँ? और चुनाव को मद्देनजर रखते हुए कब तक मंत्री परिषद् में महिलाओं की संख्या घटाई बढ़ाई जाएगी?
उच्च पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है, विशेष रूप से, राज्य स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व संस्थागत शक्ति और निर्णय लेने वाली महत्त्वपूर्ण सीटों पर नगण्य है। ढ्ढत्रष्ट ने 30 मार्च 2021 तक अपनी वेबसाइटों से राज्य सरकार के नेतृत्व की संरचना पर डेटा एकत्र किया है। भारत के छह राज्यों में नागालैंड, सिक्किम और मणिपुर सहित कोई महिला मंत्री नहीं हैं। कोई भी राज्य एक तिहाई महिला मंत्रियों के करीब नहीं आता है, महिला मंत्रियों का उच्चतम अनुपात 13त्न तमिलनाडु में है। सारे राज्यों में मतदान केंद्रों के बाहर महिलाएँ अपना मत डालने के लिए कतार में रहती हैं, लेकिन भारत के कानून बनाने वाले निकायों में महिला सांसदों की संख्या इतना कम क्यों हैं? भारत में कार्यकारी सरकार और संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पूर्ण संख्या में और साथ ही विश्व स्तर पर बेहद कम है। स्वतंत्रता के बाद के पूरे युग में केवल एक छोटी-सी प्रगति देखी गई है। पहली लोकसभा (1952) और सत्रहवीं लोकसभा (2019) के बीच महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.4 प्रतिशत हो गया है। स्वतंत्रता के बाद की पूरी अवधि के दौरान राज्य सभा (उच्च सदन) में भी महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व की इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गई है जो की एक विषम आंकड़े का प्रतिनिधित्व करता है, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है।
1975 में जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री पद पर थी, उसी वक़्त एक रिपोर्ट आयी थी जिसका नाम था ‘समानता की ओर’ इस रिपोर्ट में यह बताया गया था कि व्यवस्था के हर क्षेत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रसाशनिक, धार्मिक, तकनीकी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे पर महिलाओं की स्थिति नगण्य है और इसी में सबसे पहले महिला आरक्षण पर भी बात की गयी थी। दुर्भाग्य की बात थी कि रिपोर्ट तैयार करने वाले अधिकतर सदस्य महिलाओं के आरक्षण के खिलाफ थे, इसी वज़ह से समानता की ओर रिपोर्ट में महिलाओं के आरक्षण का मुद्दा लगभग समाप्त हो गया था।
1996 में ?च डी देवगौड़ा की सरकार ने 12 सितम्बर 1996 को पहली बार महिला आरक्षण बिल को पेश किया, उस बिल में महिला आरक्षण की बात तो हुयी थी लेकिन उस बिल में विशेषाधिकार प्राप्त तथाकथित स्वर्ण और आम महिलाओं में कोई अंतर दिखाई नहीं दिया, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव की मांग थी की कोटे के अंदर भी कोटा हो ताकि पत्थर तोडऩे वाली और मजदूरी करके पेट पालने वाली भी संसद और विधानसभा पहुँचे। बहुजन समाज से आने वाली महिलाओं की हालात बहुजन नेता बेहतर जानते थे, वे जानते थे अगर कोटे के अंदर कोटा नहीं होगा तो बहुजन समाज की एक भी महिला, संसद और विधानसभा तक नहीं पहुँचेगी।
1998 में बारहवीं लोकसभा में अटल विहारी वाजपेयी के एनडीए सरकार में, एम तंबीदुरै जो तत्कालीन कानून मंत्री थे उन्होंने इस विधेयक को फिर से पेश करने की कोशिश की पर सफलता नहीं मिली। 1999 और 2003 में एनडीए सरकार ने बिना कोटे के अंदर कोटा के साथ असफल प्रयास की। 2010 में यूपीए2 की सरकार ने राज्यसभा में इस विधेयक को पास कर दिया लेकिन लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो पाया, 2014 में पंद्रहवी लोकसभा भंग हो गयी और यह विधेयक भी ख़तम हो गया।
जहाँ कोटे के अंदर कोटा के साथ महिला आरक्षण बिल को पास कराने में वर्षो की कोशिशें नाकाम होती गयी हैं वहीँ लालू प्रसाद यादव द्वारा राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाने का एक फैसला सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक मिशाल खड़ी कर दी। पुरुष प्रधान देश में, राजनीति में पुरूषों का वर्चस्प पहले से ही चला आ रहा है और 1997 में लालू प्रसाद यादव का राबड़ी देवी को 25 जुलाई 1997 को मुख्यमंत्री बनाना पितृसत्ता और ब्राम्हणवाद दोनों का एक साथ चुनौती देना था। 25 जुलाई 1997 भारतीय राजनीति में पूरे बहुजन महिलाओं के लिए अमिट दिन रहेगा। लालू प्रसाद यादव के इस फैसले से बहुजन समाज की महिलाओं में जगी हुयी राजनीतिक चेतना का इतिहास हमेशा गवाह रहेगा।
(लेखिका-जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, स्कूल ऑफ़ कम्प्यूटेशनल एंड इंटीग्रेटिव साइंस में रिसर्च स्कॉलर हैं और छात्र राजद की एक्टिविस्ट हैं)