महिलाओं के लिए चुनाव में सिर्फ घिसे-पिटे वादे नहीं ठोस सकारात्मक कदम उठाने की जरुरत
लेखिका- कंचना यादव
दुनिया जब, सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में महिलाओं के उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के बारे में बात कर रही हो तो उसे सच्चाई से रूबरू कराना भी हमारी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है और ऐसे समय में जब भारत के पास महिला रूपी वृहत राजनीतिक भंडार हो तब भारत को चाहिए कि इस वृहत राजनीतिक भण्डार से शक्ति और सामर्थ्य ले। केंद्र और राज्य में चाहे सत्ता में बैठी हुई मजबूत राजनीतिक पार्टियाँ हों या फिर निगाहों से ओझल विकेन्द्रित राजनीतिक पार्टियाँ हों, समय की जरुरत है कि ये सब मिलकर महिला राजनीति को एक नया रूप और एक नया आयाम दें। महिलाओं में नव-नेतृत्व की परंपरागत समृद्धि हमेशा से रही है बस जरुरत है तो उसे समझने की और राजनीतिक गलियारों में स्थान देने की। भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक चिंतन के अनुरूप महिलाओं के नव-नेतृत्व करने की उत्कर्ष अपने आने वाले कल के राजनीतिक सपनों को नव-आकार दे रही है। वास्तव में देखें तो महिलाओं की राजनीतिक स्थिति का निर्माण किसी भी देश की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के आधार पर तय होती है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ जाति का वर्चस्व हमेशा से रहा है वहाँ पर आर्थिक और सामाजिक स्थिति महिलाओं की राजनीति को और भी ज्यादा प्रभावित करती है।
विश्व राजनीति के संदर्भ में भारतीय महिलाओं की राजनीतिक धरातल प्राचीन होते हुए भी आज संसद और विधान सभाओं में महिलाओं की उपस्थिति दयनीय है खासकर ओबीसी, एससी एसटी समाज यानी कि बहुजन समाज से आने वाली महिलाओं की जबकि आजादी के समय से ही महिलाओं की राजनीतिक जागृत और बौद्धिक विकास से राष्ट्रीय आंदोलनों को अपार शक्ति मिली है। इसका एक ताजा उदाहरण अभी देश भर में चल रहे किसान आंदोलन में देखा गया है जिसमें महिलाओं ने आगे बढक़र अपना अमूल्य योगदान दिया था। आज महिलाएँ केवल राष्ट्रहित के कार्यों तक ही नहीं हैं बल्कि वे अपने राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने के प्रति भी सचेष्ट हैं। अगर वह अपने मताधिकार का प्रयोग बखूबी कर सकती हैं तो राजनीतिक नेतृत्व भी संभाल सकती हैं।
देश की आधी आबादी के अंदर एक नए समानता की लहर लाने की जरुरत है, नए राजनीतिक कार्यों के लिए महिला नेत्रियों की जरुरत समय की मांग है। वर्तमान समय में समाज की कुछ शिक्षित महिलाएँ किसी न किसी राजनीतिक पार्टी में या नेतृत्व करने के क्षेत्र में शामिल होना चाहती हैं। वह चाहती हैं कि वह अपनी व्यक्तिगत एवं स्वतंत्र प्रतिष्ठा की प्राप्ति स्वयं करें। अपनी शैक्षणिक योग्यता के अनुरूप अधिकांश महिलाएँ राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न हो तो रही हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह संलग्न मात्र ही रह जा रही हैं।
सदियों से राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं की राजनीतिक हिस्सेदारी समाज में विद्यमान कुछ कारकों पर निर्भर करता है जैसे कि उसका आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात। इसलिए समय की मांग यह भी है कि महिलाओं के सन्दर्भ में नई राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण किया जाये ताकि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ी महिला भी राजनीतिक भागीदारी कर सके और अपने लिए कानून बना सके। जैसे कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ी महिला मतदान करती है जिसकी वोट की कीमत उतनी ही होती है जितनी की प्रधानमंत्री के वोट की कीमत।
राजनीति में हमेशा से उच्च जाति और धनवान लोगों का वर्चस्व कायम रहा है। राजनीति एवं नेतृत्व के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को शिक्षा का स्तर भी प्रभावित करता है। ओबीसी, एससी, एसटी समाज से आने वाली महिलाओं में शिक्षा का निम्न स्तर इनकी राजनीतिक भागीदारी में एक बड़े अवरोधक के रूप में आ जाती है। पिछड़ें समाज की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए आज समय की मांग है कि आरक्षण की राजनीति करें। एक अर्से से संसद में पड़े महिला आरक्षण बिल को कोटे के अंदर कोटा के साथ पास कराया जाये ताकि सिर्फ उच्च जातियों और धनवान लोगों का राजनीति में वर्चस्व न रहे। संसदीय और विधायिका से सम्बधित राजनीति में महिलाओं के योगदान की बात करें तो, कुछ महिला चेहरे हैं जैसे गायत्री देवी, तारकेश्वरी सिन्हा, मोहसिना किदवई, डॉ मारग्रेट अल्वा, इंदिरा गाँधी, राबड़ी देवी, शीला दीक्षित, सुषमा स्वराज, ममता बनर्जी, जयललिता, उमा भारती, वृंदा करात, सोनियाँ गाँधी, विजया राजे सिंधिया, मायावती, कनिमोझी, सुप्रिया सुले और निर्मला सीतारमण। इनमें से कुछ नाम जैसे कि राबड़ी देवी और मायावती को छोड़ दें तो अदिकांश महिलाएँ उच्च जाति और राजघराने जैसे परिवार से आती हैं। इसलिए महिला आरक्षण बिल को लेकर लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव का मानना था कि कोटे के अंदर कोटा को लाया जाये ताकि फूलन देवी भी संसद पहुचें और भगवतिया देवी भी संसद पहुचें।
संसद और विधान सभाओं में जब 33 आरक्षण लागू होगा तो राजनीतिक नजरिये से महिला प्रतिनिधियों के लिए एक नए युग की शुरुआत होगी। जिसका सकारात्मक प्रभाव राजनीतिक नीतियों के भी निर्धारण में मिलेगा। चुनाव के घोषणा पत्रों में कई दफा राजनीतिक पार्टियों ने महिला आरक्षण बिल को पास कराने की बात तो कही है लेकिन चुनाव जीतने के बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। फिर पार्टियों को महिला मतदाताओं की याद अगले चुनाव में ही आती है। महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक पार्टियों की असंवेदनशीलता महिला आरक्षण बिल को कोटे के अंदर कोटे के साथ पास करने में असफलता से ही साफ़ हो जाती है। चुनाव के दौरान कुछ घिसे-पिटे वादे जो किये भी जाते हैं चुनाव जीतने के बाद उसे बहुत ही आसानी से भुला भी दिए जाते हैं। संसद और विधायी निकायों में महिलाओं के लिए सकारात्मक दिशा में काम किया जाना समय की मांग है और इसके लिए महिलाओं की चुनावी प्रक्रिया में बाधक बनने वाली चीजों को दूर करने की जरुरत है क्योंकि जब तक महिलाओं की प्रगति नहीं होगी तब तक किसी समुदाय की और इस देश की प्रगति नहीं हो सकती है।
डॉ भीमराव आंबेडकर का कहना था मैं एक समुदाय की प्रगति को उस प्रगति की डिग्री से मापता हूँ जो महिलाओं ने हासिल की है।